kanchan singla

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मैं हमेशा डरती रही...!!

मैं हमेशा डरता रही

अपने अंधेरों से
अपने उजालों से
लोगो के सवालों से
अपने जज्बातों से
कभी कभी स्वयं से भी
पर यह डर हमेशा से 
बेमतलब ही रहा मेरे अंदर।।

व्यर्थ ही गया मेरा डरना
जब इक रोज हुआ एहसास
मेरा सामना हुआ मुझसे ही
जब छुआ मैंने मेरा अक्स
पहचाना खुद को, खुद में
पंख फड़फड़ाने लगे
उड़ने को बेताब से
मुझसे ही मुझको मिलने लगे।।

अब मैं आजाद हुई उस डर से
जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं था
मेरी कोरी कल्पनाओं का भय था
चाहूं तो मैं डर कर जी जाऊं या
मिला आंख से आंख संघर्ष कर जाऊं
मेरे हौंसलों की पहचान मैंने खुद से की
कोई नहीं था उठाने को जब ठोकर से गिरी
जितनी बार गिरी उतना ही संभलती गई
इसी तरह मैं अपने डर से बाहर निकल आगे बढ़ती गई ।।


स्वयं को पहचान लिया
अपना अस्तित्व तलाश लिया
लेकर नए सपनों की उड़ान
अब लेखन से मैंने नाता जोड़ लिया ।।


- कंचन सिंगला ©®
लेखनी प्रतियोगिता -08-Aug-2022


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12 Comments

Wahhh Superr से भी बहुत बहुत uperr उम्दा

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Punam verma

10-Aug-2022 11:32 PM

Nice

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Abhinav ji

10-Aug-2022 08:59 AM

Nice

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